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कविता

खनक उठो, ओ यौवन

निकोलाइ असेयेव


खनक उठो, खनक उठो, ओ मेरे यौवन
ओ बलिष्‍ठ और दुष्‍ट यौवन
आनंद और खुशियों से
भरा है तुम्‍हारा जीवन।

पर याद रखना, ओ यौवन,
अंतहीन नहीं है यह बहार,
यह रोशनी दी नहीं जा सकती जो दूसरों को
बस बन कर रह जायेगी एक सीटी और ठण्‍ड।

मँडराने लगेंगे तुम्‍हारे ऊपर
सफेद रंग के बादल,
सोचते रह जाओगे रात रात भर
नींद नहीं आयेगी एक भी पल।

खनक उठो, खनक उठो, ओ यौवन
ताजे और दुष्‍ट यौवन,
अपने सहज सरल नाम की
महिमा गाते, डींगे मारते।

लेकिन कुछ और गढ़ने की जरूरत क्‍या
जब सफेद बालों से भरे सिर के भीतर
जो दिखता है और जो दिखता नहीं
हो जाता है मिलकर एक।

ओ मेरे प्रिय होठों
अब तुम भी नहीं पहले जैसे
कितने भद्दे कितने बदसूरत
जबकि पहले हुआ करते थे कोमल।

खनक उठो, खनक उठो, ओ यौवन,
गतिशील और दुष्‍ट यौवन
तारों और बिजलियों से भरे
पूरे वजूद से दहकते हुए!

देख लो तुम अपनी आँखों से
पसंद नहीं है घुड़सवार को पैदल चलना
अपने सिर को लटकाये रखना
हाथों पर भारी कनस्‍तर की तरह।

क्‍यों न लटकाया जाया उसे
इन हाथों से नीचे
फिर से तो उसे कभी
मिलने वाला नहीं है यौवन।

खनक उठो, ओ यौवन,
इन निर्जन जगह तक पहुँचने पर
मिलने दो मुझे पतझर के साथ,
गाने दो, सोचने दो।

 


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